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फिल्म रिव्यू -

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शेरनी : बंदरबाँट का खेला 


समीक्षक : भुवन गुप्ता (तहसीलदार) की कलम से

लोकमतचक्र.कॉम।

हम फिल्म क्यों देखते हैं ? रोमांच, ड्रामा, रोमांस, मनोरंजन .... और भी पैमाने हो सकते हैं ! या सच की पहचान, असलियत की खोज और सच्ची कहानी की तलाश में. यदि आप दूसरी श्रेणी (जिन्हें अस्सी के दशक में समानांतर सिनेमा कहा जाता था) के दर्शक है, तो अमित मसूरकर के निर्देशन और विद्या बालन के अभिनय से सजी फिल्म 'शेरनी' आपके लिए है. यदि आप प्रकृति और पशु प्रेमी है, जंगल और जानवर का रोमांच महसूस करना चाहते हैं, तो यह फिल्म विशुद्ध रुप से आपके लिए ही है. हां, इस फिल्म का जंगल आपके लिए खोफ़ या संस्पेंस पैदा नहीं करता, बल्कि आपको जन, जंगल, जानवर के करीब ले जाता है. उनके आपसी संघर्ष और साझा अस्तित्व की अबूझ पहेली से परिचय कराता है. 

फिल्म में एक बड़ा और घना जंगल है. जंगल का पूरा महकमा है. महकमें में फॉरेस्ट गार्ड से लेकर बड़े-बड़े अफसर है. एक जीव-विज्ञान का प्रोफेसर है, एक शिकारी है. विधायक जी है, एक ठेकेदार विधायक जी के साले है. विरोधी पार्टी के नेता है. माईक और कलम लेकर आतुर मीडिया की मंंडली है, जंगल के आसपास की गरीब / आदिवासी आबादी है और इन सबके बीच एक शेरनी है. फिल्म को शेरनी के 'सिंबोलिज़्म' के इर्द-गिर्द देखने / समझने की जरुरत है. पूरी फिल्म में यह शेरनी क्लाइमेक्स के अलावा सिर्फ एक दृश्य में दिखाई गई है, बाक़ि सारी फिल्म उसको लेकर बातें करती है.  महकमें की बातें, उनकी कार्य योजनाएं और वर्क-शॉप्स, गरीब-आदिवासियों के शेर को लेकर परसेप्शन, शिकारी के जीवंत अनुभव, जीव-विज्ञान के अध्ययन, नेताओं के अपने राजनीतिक, जातिगत और सामाजिक संतुलन ..... इन सबसे निर्मित एक 'सिस्टम', जो 'इको-सिस्टम' को बचाने के लिए खड़ा किया गया है. सिस्टम ऐसा, जिसमें मंत्रीजी फॉरेस्ट ऑफिसर को यह कहते दिखाई देते हैं कि, "यदि 10 में से 06 लोग यह मानते हैं कि इस गांव वाले को शेर ने मारा, तो आप भी यही मानिए;" भले ही बेचारा भालू का शिकार हुआ है. सिस्टम के 'कन्फर्मेशन बॉयस' होने का एक उत्तम उदाहरण. 

फिल्म की कहानी यह है कि, डी.एफ.ओ. विद्या विंसेंट (विद्या बालन) की जिले में ताज़ा पोस्टिंग हुई है और उनके प्रभार के जंगल में एक शेर आदमखोर हो गया है. फिल्म उस शेर को बचाने, शेर से गांव के जानवर और लोगों को बचाने, शेर को पकड़ने या मारने के उपक्रम पर आधारित है. इस पूरी कवायद में उसके अमले की सहभागिता, उच्च अधिकारियों का व्यवहार, आम जनता की मजबूरी, नेताओं के उकसावे, शिकारी की नज़र, जीव विज्ञान के प्रोफेसर की कुलबुलाहट, मीडिया का उतावलापन, उसके अपने परिवार का नजरिया और विद्या की नियत. इन सबके साझा संघर्ष और संतुलन के बीच फिल्म को बुना गया है.

फिल्म पारिस्थितिक-तंत्र की बहाली, मानव-पशु संघर्ष और विकास बनाम पर्यावरण के बड़े-बड़े नारों की सहज और सरल अभिव्यक्ति है. यहां *#Save_the_tiger*  टी-शर्ट या दीवार पर लिखा महज एक नारा नहीं है, बल्कि इसके मिशन मोड में इसी जज्बे के लिए जीती एक नायिका है. हमारी सोसायटी और हमारे सिस्टम में, एक महिला का नौकरीशुदा होना ही कितना विषमताओं से भरा है, उसमें भी उस पर जंगल और शेर को बचाने की जिम्मेदारी. इस कड़वे यथार्थ के बीच ....  "जंगल कितना भी घना क्यों न हो, एक शेरनी अपना रास्ता ढूंढ ही लेती है." फिल्म में बेसिकली जंगल की शेरनी टी-12 और सिस्टम के बीच बनती/उभरती शेरनी विद्या; इसी घनघोर , बियाबान जंगल (सिस्टम !) में अपना रास्ता तलाशती है. 

सिस्टम के यथार्थ के रुप में भले ही 'शेरनी' एक पराजित यथार्थ की कहानी कही जाए. लेकिन यह एक ऐसा यथार्थ है जिसमे हम सभी जीते हैं / सांस लेते है. और सिस्टम के एक पूर्जे / एक औजार के रुप में अपने हिस्से का 'काम' अच्छे से कर लेने का संतोष अर्जित करना ही अपनी सफलता मानते हैं। अमित मासूरकर एक अलग तरह का सिनेमा रचने में पारंगत है। उनकी पिछली फ़िल्म न्यूटन में भी सिस्टम के बीच, सिस्टम से लड़ता एक नायक है. न्यूटन और शेरनी को इस नजर से देखें तो दोनों जगह व्यवस्था में, भीतर से कोई ईमानदार केरेक्टर अपने हिस्से की कोशिश तो कर रहा है. यह कोशिश कितनी कारगार या धारदार है, उससे महत्वपूर्ण है यह समझना कि, हम जिन समस्याओं से जूझ रहे हैं, उनका हल सिस्टम के ऐसे लड़खड़ाते, गिरते-उठते प्रतिनिधि ही निकालेंगे .

फिल्म में विद्या बालन निहायत ही सादगी और असलियत से दर्शकों के बीच रूबरूं है. यह पूरी तरह से उनकी फिल्म है और पूरी फिल्म में वह सौ फीसदी जंगल महकमें के ऑफिसर के किरदार के साथ न्याय करती है. लेकिन, उनके इर्द-गिर्द अन्य कलाकारों का चयन भी बेहतरीन है और सिस्टम की सच्चाई को दिखाते ये कलाकार कहीं भी फिल्मी नहीं होते. बृजेंद्र कालरा ओर नीरज काबी (फॉरेस्ट के बड़े अफसर) शरद सक्सेना (शिकारी पिंटू भैया) विजय राज (जीव-विज्ञानी हसन) सब अपने रोल और फ्रेम में फिट है. फिल्म में अन्य अधिकांश कलाकार स्थानीय तौर पर जबलपुर, बालाघाट और भोपाल से लिए गए है. सबने एक वास्तविक फिल्म निर्माण में योगदान दिया है.

फिल्म की अधिकांश शुटिंग हमारे मध्यप्रदेश में हुई है और इसे *#MPkiSherni* हेशटैग के साथ म.प्र के पर्यटन विभाग ने प्रचारित किया है. बालाघाट के गांगुलपारा क्षेत्र का जंगल, कान्हा का राष्ट्रीय उद्यान, मलाजखंड की माईंस, रायसेन-देलावाड़ी के भूत पलासी का जंगल. सब कुछ सहज, सुंदर और सरल. यदि अब तक जंगल से आपका परिचय सफारी या एनिमल प्लानेट के माध्यम से ही हुआ है, तो असली जंगल से जुड़ने के लिए फिल्म देखिए. देखिए कि कैसे एक जंगल में मानव और पशु का साझा संघर्ष है और साझा ही अस्तित्व. पर्यावरण में जन, जंगल और जानवर एक दूसरे के पूरक भी है और एक दूसरे से जुड़े होकर एक दूसरे पर आश्रित भी.

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